प्रबोधनकार ठाकरे

प्रबोधन डॉट कॉम के लिए प्रबोधनकारजीका यह अल्पपरिचय लिखा है, 'दोपहर का सामना'के संपादक श्री. प्रेम शुक्लाजीने...

प्रबोधनकार केशव सीताराम ठाकरे। वैसे तो उनकी पहचान एक सत्यशोधक आंदोलन के चोटी के समाज सुधारक और प्रभावी लेखक की रही है। लेकिन उनका कर्तृत्व और प्रतिभा अनेकानेक रंगों में पुष्पित-पल्लवित हुई। विचारवंत , नेता, लेखक, पत्रकार, संपादक, प्रकाशक, वक्ता, धर्म सुधारक , समाज सुधारक , इतिहास संशोधक , नाटककार, सिनेमा पटकथा संवाद लेखक , अभिनेता, संगीतज्ञ, आंदोलनकारी, शिक्षक, भाषाविद, लघु उद्योजक , फोटोग्राफर, टाइपिस्ट, चित्रकार जैसे दर्जनों विशेषण अर्पित करने के बावजूद उनका व्यक्तित्व एक दशांगुल ऊंचा ही रहेगा। उन्होंने खजूर की तरह ऊंचा होने की बजाय वटवृक्ष की तरह अपने व्यक्तित्व को विस्तृत किया। मानो एक ही व्यक्ति ने सौ लोगों का आयुष्यमान जीने का पुरुषार्थ किया हो।

सामने दिखते ही अन्याय पर टूट पडनेवाला और इसी शक्ति के बल पर बीसवीं सदी में महाराष्ट्र को एक नई दिशा देनेवाला व्यक्तित्व , मुट्ठीभर लोगों के घरों में दबे हुए सामर्थ्य के प्रकाश को अपनी बुध्दिमत्ता और आंदोलन से सर्व सामान्य घरों तक पहुंचाया। विचार और कृति के माध्यम से महाराष्ट्र का इतिहास और भूगोल बदलने का श्रेय जिन चंद लोगों के नाम दर्ज है उनमें प्रबोधनकार का नाम अग्रणी है। उन्हें किसी चौखट में फंसना अमान्य था। इसी के चलते आज भी किसी एक विचारधारा या इज्म का चश्मा डालकर उनको नहीं देखा जा सकता। वे एक ही समय बहुजनवादी भी थे और हिंदुत्ववादी भी। जिन लोगों को प्रबोधनकार अच्छे लगे उन्हें उनका ठाकरे होना नहीं पचा और जो ठाकरे होने के चलते उनके प्रेम में पत्रडे उन्हें उनका प्रबोधनकार होने का दंश सालता रहा। परिणामस्वरूप उनका कर्तृत्व सदा-सर्वदा नेपथ्य में रह गया।

बागी बचपन-

प्रबोधनकार की जन्म तारीख है 17 सितंबर, 1885 । जन्मगांव पनवेल। लेकिन ठाकरे का मूल गांव है पाली। कुछ लोग इस पाली को मध्य प्रदेश में होने का दावा करते हैं। लेकिन यह पाली और कोई नहीं बल्कि अष्टविनायक गणपति का प्रसिध्द स्थान महाराष्ट्र के रायगड जिले का पाली है। पाली के अष्टविनायक ही ठाकरे के कुलदेवता होने का उल्लेख मिलता है। उनके दादा भिकोबा धोडपकर देवीभक्त साधु पुरुष थे। लेकिन उनमें शाक्तों की सिध्दि परंपरा के पीछे लगनेवाला मानवीय दोष नहीं था। बल्कि उन्होंने 22 वर्षों तक पंढर पूर की वारी के चलते निस्पृह लोकसेवा के व्रत का अखंड पालन किया। उन दिनों कुछ लोगों ने पैसे कमाने के चलते प्लेग देवी बनाई थी। वह भैंसे पर बैठकर गांव-गांव घूमकर पैसे जमा करती। भिकोबा उर्फ तात्या अपना आंगन बुहार रहे थे तभी वह उनके सामने भी आई। उन्होंने अपने हाथ की झात्रडू को सिर्फ जमीन पर पटका और प्लेग देवी पेट में मरोड आई , यह कहते हुए चीखने लगी। प्रबोधनकार में अंधश्रध्दा पर प्रहार करने का संस्कार यहीं से प्रारंभ हुआ।

मां के पिता बाबा पत्की प्रख्यात कानूनविद थे लेकिन उनका पिंड था शिवोपासना और जन सेवा। वर्तमान पनवेल के पहले हार्बर लाइन पर एक स्टेशन है खांदेश्वर। इस खांदेश्वर की स्थापना बाबा पत्की ने ही की थी। प्रबोधनकार ने रैशनलिजम और श्रध्दा के बीच जो संतुलन साधा और प्रश्न किया कि 'मंदिर का धर्म होना चाहिए या धर्म का मंदिर। ' उन्हें इस तरह का संतुलन साधने का प्रभाव बाल्य संस्कार से ही प्राप्त हुआ। उन्होंने श्रध्दा की खाल खींची लेकिन वे कभी श्रध्दाविहीन नहीं हुए। इन दोनों से भी अधिक प्रभाव उन पर पडा बय यानी आजी का। पिता की माता। उन्होंने जाति-धर्म की मर्यादा को लांघकर 60 वर्ष दाई का काम किया। प्रबोधनकार कहते हैं कि मैं आजन्म जात-पांत और दहेज का विरोध कर पाया उसकी प्रेरणा बय (आजी) ने दी। विद्यालय से लौटते समय एक महार की परछाई छोटे केशव के शरीर पर पडी। केशव अब अस्पृश्य हो गया , ऐसा ब्राह्मणों के बच्चे चीखने लगे। वै ने उनकी चीख सुनी। उन्होंने उनमें से एक अभ्यंकर नामक बच्चे को आगे खींचा। उसकी परछाई केशव पर डाली और कहा यदि महार की परछाई से कोई महार बनता है तो ब्राह्मण की परछाई से हमारा दादा अब ब्राह्मण हो गया। आनेवाले दिनों में महार जाति का एक सूबेदार गांव में रहने के लिए आया। अंग्रेजी की पांचवीं कक्षा में पढ रहे प्रबोधनकार उसके घर जाकर चाय पीया करते थे। परिणामस्वरूप गांव में बखेडा खडा हो गया। शिकायतें जब आने लगीं तो बय ने जवाब दिया तुम्हारी तरह दारू पीने की बजाय महार के घर की चाय पीना बुरा नहीं। बलि प्रतिपदा के दिन महारन पुकारती थी 'इडा-पीडा टले बलि का राज्य आए ', उस समय उन्हें ठाकरे के घर के ओटे पर रंगोली के पीढे पर बैठाकर दीये से परछन ली जाती थी। उसके बाद उन्हें उनकी दीवाली दी जाती थी। यह संस्कार महत्वपूर्ण था। बय अपने वृध्दावस्था में दादर में निवास के दौरान दिवंगत हुईं। उस समय हिंदुओं की सभी जातियों के साथ-साथ मुसलमानों और ईसाइयों ने भी उन्हें कंधा दिया।

पिता सीताराम पंत उर्फ बाळा इसी प्रकार सबकी मदद के लिए आगे बढनेवाले व्यक्ति थे। नौकरी चली गई तब भी बिना घबराए अपनी मर्यादा का पालन करते हुए उन्होंने छोटे उद्योग धंधे किए। उसका प्रबोधनकार पर बडा प्रभाव पडा। सफेदपोशों की तरह 9 से 5 की डयूटी कर परोपजीवी होने की बजाय उन्होंने अपने आयुष्यमान को झोंक दिया। उन्होंने तमाम तरह के कारोबार किए , उन सबका मूल सीताराम की सीख में था। गांव में आग लगे तो सबसे पहले अपना सर्वस्व बिसारकर सीताराम पंत आगे दौडते थे। गांव में प्लेग आया तब भी सीताराम इसी तरह अगुवाई करते थे। इसी प्लेग ने सीताराम को ही अपना शिकार बना लिया। जब पिता दिवंगत हुए तब प्रबोधनकार की उम्र थी केवल 16-17 साल की। पिता की तुलना में मां का प्रभाव ज्यादा महत्वपूर्ण था। उन्होंने प्रबोधनकार को अध्ययन और स्वाभिमान का संस्कार दिया। पिताजी को लॉटरी लगी। उस समय उनकी पगार हुआ करती थी पंद्रह रुपए और लौटरी लगी थी पचहत्तर रुपयों की। मां ने कहा- 'हमें तो अपने मेहनत की रोटी चाहिए। ' राजनीतिक कार्यकर्ता बनकर हराम का हफ्ता मांगनेवालों से ये कौन कहेगा ? मां ने उन्हें वाचन विशेषकर समाचार-पत्र पढने की आदत लगा दी। इसी से मराठी पत्रकारिता को नया अध्याय देनेवाला पत्रकार जन्मा।

ठाकरे की जाति सीकेपी यानी चांद्रसेनीय कायस्थ प्रभु। बचपन में किसी ब्राह्मण सहपाठी से पानी मांगा तो वह तपेले से पानी ले आता था। वह चौखट के नीचे खडा कर अंजुलि से पानी पिलाता था। मित्र की मां वह तपेली बिना धोए घर के अंदर नहीं ले जाने देती थी। शुरू में प्रबोधनकार इसे नहीं समझ पाते थे। जब समझ में आया तो उन्होंने इस अस्पृश्यता का मजाक उडाना शुरू किया और वे यह मजाक आजन्म उडाते रहे। पिता की कचहरीवाली मंडली के एक ब्राह्मण बेलिफ के घर धुनधुरमास के निमित्त प्रात:भोजन का कार्यक्रम था। पिता के साथ केशव भी गए थे। उस समय ब्राह्मणों की एक पंगत थी और दूसरी पंगत थी इन दोनों ठाकरे की। भालेराव नाम का तीसरा कारकून तीसरी पंगत में बैठा था। परोसनेवाली महिलाएं भोजन ऊपर से डालती थीं। भोजन होने के बाद पिता दोनों के बर्तन स्वयं साफ करने लगे। इस पर केशव चिढ गया। ये ब्राह्मण अगर हमसे अलग तरीके से पेश आते हैं तो हम इन्हें अपनत्व का आदर क्यों दें ? प्रबोधनकार के ये बागी तेवर उनकी उम्र के आठवीं वर्ष में थे।

आजन्म संघर्ष

पिता की नौकरी छूटने और पनवेल में आगे की शिक्षा का प्रबंध न होने के चलते उनका शिक्षण थम गया। परिणामस्वरूप कभी बारामती तो कभी मध्य प्रदेश के देवास में उनकी दौडधूप हुई। फीस उनके लिए डेढ रुपया कम पडने के चलते वे मैट्रिक की परीक्षा नहीं दे पाए और वकील बनने का उनका स्वप्न अधूरा रह गया। उसी समय से साइन बोर्ड रंगने , रबर स्टैंप बनाने , बुक बाइडिंग , दीवार रंगने , फोटोग्राफी, मशीन मैकेनिक आदि का उद्योग उन्होंने किया। उनका जीवन ध्येय था कि जब हुनरमंद हैं तो बेकारी किसलिए।

कभी नाटक कंपनी तो कभी सिनेमा कंपनी में काम किया। कभी गांव-गांव घूमकर ग्रामोफोन बेचा। कभी बीमा कंपनी का प्रचार किया। कभी स्कूल में शिक्षक का काम तो कभी इंग्लिश स्पीकिंग का क्लास चलाया। निजी कंपनी में सेल्समेन और पब्लिसिटी ऑफीसर के रूप में तो वे विख्यात हुए। कई बार तो पत्रकारों को वक्ताओं के भाषणों की प्रति लिखकर दी। चुनावी उम्मीदवारों के घोषणा-पत्र लिखे। पीडब्ल्यूडी में शॉर्टहैंड टाइपिस्ट से रिकॉर्ड सेक्शन के हेड क्लर्क के रूप में दस वर्षों तक सरकारी नौकरी भी की। उनके जीवन का यही स्थैर्यकाल था। इसके अलावा तो वे आजन्म दौड-भाग कर संघर्ष करते रहे। पत्रकारिता , लेखन और छपाई उनकी आय के प्रमुख स्रोत थे।

नाटक कंपनी में काम करते समय गुप्ते की रमा से विवाह हुआ। जनवरी , 1910 की बात है और स्थान था अलीबाग के निकट बरसोली गांव। दादर में एक बार बसेरा डाला , तो बांद्रा के मातोश्री बंगले में जाने तक वहीं रहे। इस बीच वे भिवंडी से लेकर अमरावती तक गृहस्थी जमाने की दौड-भाग में लगे रहे। उन्हें कुल दस बच्चे हुए। चार बेटे और छह बेटियां। इसके अलावा राम भाऊ हरणे और विमलताई को अपने बच्चों की तरह ही पाला भी। बालासाहेब 'मार्मिक' के बाद स्थिर स्थावर हुए। तब जाकर बुढापे में उनके आय का संघर्ष थमा।

आंदोलन

प्रबोधनकार का पहला आंदोलन अंग्रेजी विद्यालय में पढाई के दौरान हुआ। गाडगिल नाम के एक अपंग व्यक्ति उत्तम शिक्षक थे। अस्थायी होने के चलते उन्हें सेवा से निष्कासित कर दिया गया। उनके लिए कक्षा पांच में पढ रहे केशव ने विद्यार्थियों का हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन महानगरपालिका में दिया और अपने शिक्षक की नौकरी बचाई। बाल्यावस्था में ही वे बाल विवाह में भोजन करते समय 'मुद्दामहून म्हातारा इतुका न अवधे पाऊणशे वयमान ' पद गाते थे। अपने ही उम्र की यानी दस-बारह वर्ष उम्र वाली मंजू का जब उन्होंने 65 वर्षीय बूढे से विवाह होते देखा तो विद्रोह स्वरूप शादी का मंडप ही जला दिया।

'प्रबोधन' के प्रकाशन के दौरान ही दादर की खांडके बिल्डिंग में स्वाध्याय आश्रम की शुरुआत हुई। प्रबोधन के अंकों की पैकिंग के लिए हर माह दो बार अनेक युवकों को वे रतजगा कराते। वे सारे लोग प्रबोधनकार की देख-रेख में तैयार हो गए। उसी से निकला 'स्वाध्याय आश्रम ' और ' गोविंदाग्रज मंडल '। इन संस्थाओं ने व्याख्यानों के आयोजन और पुस्तकों के प्रकाशन का काम तो किया है साथ ही साथ दहेज विध्वसंक संघ का काम बडे पैमाने पर खडा किया। जहां कहीं दहेज लेकर विवाह होने का उन्हें पता चले ये युवक वहां प्रदर्शन करने पहुंच जाते। गधे की बारात निकालते और दहेज लौटाने के लिए बारातियों को मजबूर करते। इसमें से ढेर सारे कार्यकर्ता आगे चलकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के आंदोलन में अग्रणीय रहे। महिला उत्थान के काम में भी प्रबोधनकार हमेशा आगे रहते। महिलाओं के शिक्षण के लिए उनका जबरदस्त आग्रह रहता। गोवा की देवदासी पध्दति को कानूनी रूप से प्रतिबंधित करने के लिए वहां के गवर्नर जनरल को जो पहला ज्ञापन दिया गया वह प्रबोधनकार के नेतृत्व में दिया गया। उन्होंने बीस-पच्चीस विधवा विवाहों का भी आयोजन किया।

ब्राह्मणेतर आंदोलन

प्रबोधनकार को बुकबाजी का व्यसन था। उनका पिंड आंदोलनकारी का था। क्रांतिकारी विचारों का संस्कार उन्हें घर से ही प्राप्त हुआ था। लोकहितवादी , महात्मा फुले और इंगरसॉल के पठन-पाठन से उनकी वैचारिक नींव पक्की हो गई। इसी दौरान राजवाडे प्रकरण का उद्गम हुआ। भारतीय इतिहास संशोधन मंडल के चौथे वर्ष का अहवाल लिखते समय इतिहासाचार्य वि. का. राजवाडे ने मराठेशाही के ह्रास के लिए ब्राह्मणेतर और उसमें भी विशेषकर कायस्थों को जिम्मेदार ठहराया। यह सत्य नहीं था। इतिहास संशोधन के नाम पर सत्य को दबाकर ब्राह्मणेतरों के स्वाभिमान को कुचलने का यह प्रयास पेशवाई के दौर से ही लगातार जारी था। राजवाडे की इतिहास संशोधन के तपश्चर्या की इतनी दादागीरी थी कि कोई उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। ऐसे में 33 वर्षों का एक तरुण ताल ठोंककर खडा हो गया , प्रबोधनकार सामने डट गए। उन्होंने 'कोदण्डाचा टणत्कार अर्थात् भारतीय इतिहास संशोधन मंडळास उलट सलामी ' नामक प्रज्वलंत पुस्तक लिखी। उसमें उन्होंने मराठेशाही के दौरान ब्राह्मणेतरों के उज्ज्वल कार्यों और मराठेशाही के ह्रास में ब्राह्मणों की जातिवाद की जिम्मेदारी का उत्तम विश्लेषण किया। यह इतना सप्रमाण था कि राजवात्रडे उनका उत्तर ही नहीं दे पाए। परिणामस्वरूप ब्राह्मणवादी इतिहास पध्दति को आखिरी कील ठोंक उठी और मराठों के नए इतिहास लेखन की परंपरा प्रारंभ हो गई।

सिर्फ पुस्तक लिखकर ही प्रबोधनकार शांत नहीं बैठे। वे उसके प्रचारार्थ नागपुर से बेलगांव तक घूमे। वे इसी दौरान ब्राह्मणेतर आंदोलन की ओर आकर्षित हुए। ब्राह्मणेतर वैचारिक नेतृत्व की कमी की उन्होंने भरपाई की और महात्मा फुले के सत्यशोधक आंदोलन को नए सिरे से खडा करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आगे चलकर उन्होंने सातारा की गद्दी के आखिरी छत्रपति प्रताप सिंह की तत्कालीन ब्रिटिशवादी ब्राह्मण सरदारों द्वारा किए गए अपमान और उससे हुए अंत की कहानी को सार्वजनिक किया। इसी से पश्चिम महाराष्ट्र में ब्राह्मणेतर आंदोलन की नींव पड। पुणे में उनके निवास के दौरान इस आंदोलन को तेज प्राप्त हुआ। केशवराव जेधे और दिनकरराव जवलकर नामक युवकों के साथ प्रबोधनकार के आने के चलते ब्राह्मणवादी आंदोलन को बट्टा लग गया। लोकमान्य तिलक के सुपुत्र श्रीधर पंत और रामभाऊ ने भी गायकवाड वात्रडे के गणपति में अस्पृश्यों को साथ लिया। वहीं समता सैनिक संघ की स्थापना हुई। जाति भेद खत्म कर हर किसी को एक पंगत मिली। इस सबमें महत्वपूर्ण प्रेरणा प्रबोधनकार की थी। परिणामस्वरूप उनके खिलाफ बहिष्कार , घर के सामने मरा हुआ गधा डालने , उनके मृत्यु की झूठी अफवाहें फैलाने जैसे त्रास दिए गए। लेकिन वे इन सब पर भी भारी पत्रडे।

राजर्षि का धनुष्य

उस समय ब्राह्मणेतर समाज का नेतृत्व छत्रपति शाहू महाराज कर रहे थे। प्रबोधनकार भी गांव-गांव घूमकर व्याख्यान दे रहे थे। साथ ही हर जगह के कागजात में उस गांव का इतिहास भी ढूंढ रहे थे। वेदोक्त मामले में ब्राह्मणों के अखबार में होनेवाली टिप्पणी का उन्हीं की भाषा में जवाब देने के लिए महाराज को भी एक कलम बहादुर की जरूरत थी। इन दो महापुरुषों में पहली ही मुलाकात में अटूट स्नेह बन गया। वेदोक्त पुराणोक्त विवाद हो या फिर छात्र जगद्गुरु पीठ की स्थापना का मामला हो , प्रबोधनकार ने जिस प्रकार की ऐतिहासिक जानकारी छत्रपति को दी। उससे उन्हें काफी मदद मिली। प्रबोधनकार जब 21 साल के थे तब उन्हें निमोनिया (टायफाइड) हो गया। यह बीमारी तीन महीने तक रही , जिसके कारण वेतन भी नहीं मिला। पैसे की समस्या खड हो गई। ऐसे ही समय एक वकील शाहू महाराज की एक चिट्ठी लेकर आया। एक विषय पर पुराण के आधार पर ग्रंथ लिखने के लिए पांच हजार रुपए का चेक उस पत्र के साथ था। लेकिन उस पर प्रबोधनकार ने जवाब दिया 'पुराण मतलब फाग , ऐसा माननेवाला मैं जरूर हूं। छत्रपति जैसे लोगों को ऐसा विषय कहां से सूझता है ? कोई जाति श्रेष्ठ साबित होने से अपनी जाति छोटी नहीं हो जाती। मैं इस चेक पर थूकता हूं। ' छत्रपति ने परीक्षा लेने के लिए यह सब किया था। तब महाराज ने सर्टिफिकेट दिया कि 'ही इज ए ओन्ली मैन वी हेव कम अक्रॉस हू कैन नॉट बी बॉट ऑर ब्राइब्ड। '

छत्रपति जहां-जहां गलती करते थे। प्रबोधनकार उस पर तीखा प्रहार करते थे। 'प्रबोधन' के दूसरे अंक में उन्होंने 'अंबा बाईचा नायटा ' ( अंबा बाई का खसरा) नामक लेख लिखा। कुछ मराठा बच्चों ने अंबाबाई के मंदिर में जाकर पूजा की थी। उसके बदले उन बच्चों को शाहू ने सजा दी थी। इसलिए प्रबोधनकार की लेखनी का प्रसाद उन्हें चखना पडा। क्षत्रिय शंकराचार्य बनाने के मामले में भी प्रबोधनकार ने शाहू को ठोंका था। ऐसा होने के बावजूद प्रबोधनकार के प्रति शाहू का स्नेह बरकरार था। एक रात दादर क्षेत्र में एक गाड 'धनुष' को ढूंढ रही थी। शाहू महाराज प्रबोधनकार को 'धनुष' नाम से पुकारते थे। वो प्रबोधनकार के पास आए और शाहू महाराज के पास ले गए। रात बहुत हो गई थी। महाराज बीमार थे। छत्रपति प्रताप सिंह और रंगो बापूजी का इतिहास लिखेंगे , ऐसी कसम छत्रपति ने अपने हाथ में मेरा हाथ लेकर दी। सुबह महाराज की मृत्यु की खबर आई।

प्रबोधनकार की पत्रकारिता-

बचपन में जब पनवेल में थे उसी समय प्रबोधनकार को पॉकेट इनसाइक्लोपीडिया नाम की एक छोटी पुस्तक मिली थी। उसी की कुछ जानकारी का अनुवाद कर उस समय उन्होंने उसे प्रकाशित करने के लिए हरिभाऊ ना. आप्टे के 'करमणूक' के लिए भेज दिया। वह लेख उसमें प्रकाशित किया गया। हरिभाऊ ने पत्र भेजकर कुछ और लेख मंगाए। इस तरह प्रबोधनकार के लेखन का प्रारंभ हुआ। केरल कोकिलकार कृष्णाजी नारायण आठल्ये ने पनवेल में प्रबोधनकार को लेखन और पत्रकारिता का ज्ञान दिया। उसके पहले छात्र जीवन में भी 'विद्यार्थी' नामक एक साप्ताहिक का प्रारंभ किया था। उसके लिए उन्होंने एक घरेलू छपाई मशीन भी बनाई । एक सप्ताह में 50 अंक छपते थे। 4-5 माह चला। लेकिन प्रत्यक्ष रूप से उनके हाथ में स्याही उस समय लगी जब वो मुंबई के 'तत्व विवेचक ' छापखाने में गए। 1908 में वे वहां सहायक प्रूफरीडर थे। उन्होंने वहां रहते हुए छद्म नामों से विभिन्न पत्रिकाओं के लिए लिखा। 'तर' नाम से वह 'इंदुप्रकाश' और ठाणे के 'जगत्समाचार' अखबार में लिख रहे थे। उसके बाद जलगांव में उन्होंने 'सारथी' नामक की पत्रिका सालभर चलाई।

उनकी लेखनी को धार 'प्रबोधन' के कारण मिली। 16 अक्टूबर , 1921 को इस पत्रिका का प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण , ब्राह्मणेतर विवाद में नए विवादों को जन्म देने के लिए और आरोपों का जवाब देने के लिए उन्हें अपना खुद का सामयिक पत्र चाहिए था।

A fortnightly Journal; devoted to the Social, Religious and Moral Regeneration of the Hindu Society  ऐसा ध्येय रखनेवाले प्रबोधनकार राजनीति के विरोधी नहीं थे। उस समय सरकारी नौकर को भी स्वयं का पत्र निकालने की अनुमति नहीं होती थी। लेकिन अपने काम में अत्यंत निपुण प्रबोधनकार को तब ब्रिटिश सरकार ने 'प्रबोधन' निकालने के लिए विशेष छूट दी। लेकिन अपने विचारों की स्वतंत्रता का संकोच होता है , ऐसा लगने पर उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। सामाजिक सुधारों को सफेदपोश समाज से आगे ले जाकर उसे बहुजन समाज तक पहुंचानेवाले प्रबोधन आगरकर के 'सुधारक' से भी कुछ कदम आगे चले गए थे। ऐसा मराठी अखबारों का इतिहास लिखते समय रा.के. लेले कहते हैं। प्रबोधनकार की शैली के बारे में वे कहते हैं 'उनकी वाणी तथा लेखनशैली का जोड महाराष्ट्र में मिलना मुश्किल है। वे सिर्फ चिकोटी ही नहीं बल्कि तीखा प्रहार करते हैं। पढनेवाले के तन-बदन में आग लग जाए ऐसी उनकी भाषा थी। लेकिन वह अधिक आसान और विशुध्द मराठी होती। ' महाराष्ट्र में 'प्रबोधन' की बिक्री और प्रभाव प्रचंड था। उसने अपने पांच-छह साल के कार्यकाल में ही बहुजनवादी पत्रकारिता को मान्यता , पहचान और विचारों की प्रौढता प्रदान कर दी। इसीलिए 'प्रबोधन' बंद होने के बाद भी 'प्रबोधनकार' यह नाम उनके साथ सम्मान के साथ लग गया। आगरकर का व्रत पूरा करने के लिए उन्होंने पुणे में 'लोकहितवादी' नाम का साप्ताहिक भी सालभर चलाया। 'प्रबोधन' बंद होने के बाद उन्होंने अपना स्वयं का पत्र नहीं निकाला , लेकिन वे हमेशा लिखते रहे। मालती तेंडुलकर के 'प्रतोद' के वे सालभर तक संपादक थे। 'कामगार समाचार ' से लेकर 'अग्रणी' तक तथा 'विजयी मराठा ' से 'कंदील' तक कई सामयिक पत्रों में वे लिखते रहे। 'नवा मनू ' में 'तात्या पंतोजीच्या घडया ', ' पुढारी' में 'शनिवारचे फुटाणे ' नवाकाल में 'घाव घाली निशाणी ' लोकमान्य में 'जुन्या आठवणी ' तथा 'बातमीदार' में 'वाचकांचे पार्लमेंट ' ऐसे कई कॉलम उनके प्रसिध्द थे। आखिरी समय वे प्रमुखता से 'मार्मिक' के लिए लिखते थे।  

कर्मवीर का गुरु-

ब्राह्मणेतर आंदोलन के लिए जब वे सातारा घूम रहे थे तो उनकी मुलाकात भाऊराव पाटील से हुई। भाऊराव भी प्रबोधनकार की ही तरह सेल्समैन। वो टाई-कोट पहनकर किर्लोस्कर के हल बेचते थे। लेकिन अस्पृश्यों को शिक्षा देने के लिए वह रयत शिक्षण संस्था चलाते थे। उनके काम की सारी रूपरेखा प्रबोधनकार के साथ दादर के खांडके बिल्डिंग में तैयार हुई। सातारा में हल का कारखाना शुरू करने और उसमें से मिलनेवाले पैसे पर बोर्डिंग खड करने की योजना थी। उसके लिए उद्योगपति खानबहादुर धनजी कूपर ने पाडली में कारखाना शुरू किया। वहां पर छापखाना शुरू करने के लिए प्रबोधनकार भी पहुंचे। लेकिन इस कारखाने से न बोर्डिंग को पैसे मिले और न ही 'प्रबोधन' लंबे समय तक छपा। कर्मवीर भाऊराव पाटील के काम में जब भी समस्या हुई तब प्रबोधनकार उनके साथ खडे थे। बोर्डिंग के बच्चों के लिए घर-घर जाकर अनाज भी मांगा। रयत शिक्षण की कल्पना भले ही मेरी हो लेकिन उस बीज को चेतना , स्फूर्ति और उत्साह का पानी डालकर उसे अंकुरित करनेवाले और प्रारंभ में ढांढस देकर विरोधियों का पर्वत तोडकर राह दिखानेवाले मेरे गुरु सिर्फ प्रबोधनकार ठाकरे थे। वे मेरे सच्चे गुरु हैं। 

प्रबोधनकार भाऊराव के साथ अस्पृश्य बोर्डिंग के लिए हरिजन फंड से पैसा लेने के लिए गांधीजी के पास गए थे। तिलकवादियों का वर्चस्व तोडनेवाले महात्मा के रूप में प्रबोधनकार गांधीजी को देखते थे। लेकिन उन्होंने समय-समय पर गांधीजी पर भी प्रहार किया। आप कहते हैं 'आई एम ए बेगर विथ बाऊल ' आप बेगर तो हैं लेकिन रॉयल बेगर हैं और भाऊराव रीयल बेगर हैं। इस तरह का गांधीजी को जवाब देते हुए उन्होंने भाऊराव के लिए प्रतिवर्ष एक हजार रुपए का दान प्राप्त किया था। दो साल बाद अकोला में गांधीजी की सभा न हो ऐसी कोशिश करनेवाले सत्याग्रहियों से बचाते हुए गांधीजी को सभास्थल तक पहुंचाने का पराक्रम भी किया। बहुत समय बाद गांधीजी को महात्मा की बजाय मिस्टर ऐसा संबोधन करने आग्रह था इसलिए उन्होंने नथूराम गोडसे के 'अग्रणी' पत्रिका में लिखना बंद कर दिया।

सार्वजनिक नवरात्री उत्सव के प्रणेता-

पुणे से मुंबई लौटने के बाद 1926 में दादर के गणपति उत्सव में उन्होंने करिश्मा दिखाया। ब्राह्मणेतर समाज का आग्रह था कि गणपति की पूजा किसी अस्पृश्य के हाथों हो। लेकिन गणपति मंडल के ब्राह्मण नेता इसके लिए तैयार नहीं थे। उस समय प्रबोधनकार ने ऐलान किया कि 'समस्या का समाधान नहीं निकाला गया तो मैं गणपति तोड डालूंगा। ' उसके बाद डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर , रावबहादुर बोले की मध्यस्थता से तय हुआ कि दलित नेता मडकेबुआ के हाथ से फूल लेकर ब्राह्मण पुजारी उसे भगवान के चरणों में अर्पित करेगा , लेकिन अगले साल से भी दादर का गणेशोत्सव बंद हो गया। ठाकरे ने गणपति बंद कराया ऐसा शोर मचने लगा। इसलिए सार्वजनिक नवरात्रि उत्सव का प्रारंभ किया। गुजराती गरबा और बंगाली दुर्गापूजा ये पहले से होंगे , लेकिन देवी की मूर्ति लाकर महाराष्ट्रीय पध्दति से नवरात्रि शुरू करने का श्रेय प्रबोधनकार को ही जाता है। लेकिन उन्होंने ऐसा प्रमाण दिया कि इस प्रकार का उत्सव शिवकाल में होता था। जो पेशवाकाल में बंद हो गया। लोकहितवादी संघ की स्थापना कर दादर में आज स्थित तिलक पुल के पास के मैदान में यह उत्सव मनाया गया। इसमें पालघर से लेकर कुलाबा तक का ब्राह्मणेतर समाज शामिल हुआ। अगले साल ही वह पूरे महाराष्ट्र में फैल गया। आज भी प्रबोधनकार का शुरू किया गया उत्सव खांडके चाल में जारी है।

बहुजनवादी हिंदुत्व का मूल पुरुष

हिंदुत्ववाद और बहुजनवाद में समन्वय साधने का श्रेय प्रबोधनकार को जाता है। हिंदुत्व की आड में ब्राह्मण का लाभ उठानेवाले लोगों का उन्होंने विरोध किया वे स्वयं हिंदुत्ववादी थे , लेकिन उनकी नींव बहुजनवादी थी। उन्हें बहुजनवादी हिंदुत्व का मूल पुरुष माना जाना चाहिए। ब्राह्मणेतर आंदोलन के समय कांग्रेस की तरफ नहीं जानेवाले कई बत्रडे नेता न.चिं. केळकर और सावरकर के प्रभाव के कारण हिंदू महासभा की तरफ गए। लेकिन प्रबोधनकार का आंदोलन हमेशा स्वतंत्र रहा। वे कांग्रेस और हिंदू महासभा से समान अंतर बनाकर रहे।

प्रबोधनकार की हिंदुत्व की नींव गजानन राव वैद्य के हिंदू मिशनरी सोसायटी में पड। सोसायटी ने धर्मांतरित हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म में लाने का काम किया। इसके अलावा वैचारिक दृष्टि से उनका काम महत्वपूर्ण है। लेकिन वैद्य और उनके अनुयायी ब्राह्मणेतर होने के कारण हिंदुत्ववादियों ने उनके काम को हमेशा नजरअंदाज किया। प्रबोधनकार ने हिंदू मिशनरी के रूप में कई साल तक प्रचार किया। गांव-गांव घूमकर व्याख्यान दिए। नागपुर की हिंदू मिशनरी परिषद के वे अध्यक्ष थे। वैद्य द्वारा तैयार की गई वैदिक विवाह पध्दति का उन्होंने संपादन किया। कई लोगों के विवाह में नई विधि के अनुसार पौरोहित्य भी किया। आज भी वैदिक विवाह विधि प्रसिध्द है। हिंदू धर्म के अंधश्रध्दा परंपरा पर तथा आद्य शंकराचार्य से लेकर लोकमान्य तिलक तक के हिंदुत्ववादियों के आदर्श पर प्रहार , उसी तरह ब्राह्मणेतर समाज का नेतृत्व उनकी दृष्टि में हिंदुत्ववाद का ही एक हिस्सा था। उन्होंने पूर्वाग्रह से मुस्लिम तथा ईसाइयों पर कभी आरोप नहीं किया। उनका हिंदुत्ववाद दलितों के खिलाफ नहीं था। उल्टे वे दलितों के समर्थन में लडते थे।

साहित्य

'वत्तृफ्त्वशास्त्र' (1911) को प्रबोधनकार की पहली पुस्तक मानी जानी चाहिए। इस विषय पर भारतीय भाषा में लिखी गई यह पहली पुस्तक थी। स्वयं लोकमान्य तिलक ने इस पुस्तक की प्रशंसा की। लेकिन उसके पहले भी उन्होंने 'लाइफ एंड मिशन ऑफ रामदास ' (1918) नामक संत रामदास का अंग्रेजी चरित्र लिखा , ऐसा उल्लेख मिलता है। लेकिन वह पुस्तक आज उपलब्ध नहीं। 'भिक्षुकशाहीचे बंड ', ' नोकरशाहीचे बंड अर्थात ग्रामण्याचा साद्यंत इतिहास ' ' दगलबाज शिवाजी ' ऐसी पुस्तकों ने इतिहास की तथा 'शनिमहात्म्य', ' धर्माची देवळे आणि देवळांचा धर्म ', ' हिंदू धर्माचे दिव्य ', ' हिंदू धर्माचा -हास आणि अध:पात ' ऐसी पुस्तकों में धर्म की चिकित्सा की गई। 'पंडिता रमाईबाई सरस्वती ', ' श्रीसंत गाडगेबाबा ', ' कर्मवीर भाऊराव पाटील यांचे अल्पचरित्र ' ये उनकी चरित्रात्मक पुस्तकें हैं।

'माझी जीवनगाथा ' यह उनकी स्मृतियों पर लिखी आत्मकथा तो बीसवीं सदी के महाराष्ट्र के इतिहास का अध्ययन करने का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गया है। उनके पूर्व प्रकाशित लेख संग्रह और पुस्तक काफी आए। शाहिर बनकर उनके लिखे दो पोवाडे भी किताब की रूप में देखने को मिलती है। उसमें 'स्वाध्याय संदेश ' और 'उठ मऱ्हाठया उठ ' महत्वपूर्ण पुस्तक हैं। 'खरा ब्राह्मण ', ' टाकलेलं पोर ', ' संगीत विधिनिषेध ', ' काळाचा काळ ', ' संगीत सीताशुध्दी ' नामक नाटकों ने भी इतिहास रचा है। इसके अलावा उन्होंने फिल्में भी लिखीं। आचार्य अत्रे की फिल्म 'श्यामची आई ', ' महात्मा फुले ' और 'माझी लक्ष्मी ' में उन्होंने अभिनय भी किया।

संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन-

संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में प्रबोधनकार ठाकरे , आचार्य अत्रे , भाई माधवराव बागल , ' प्रभात'कार वा.रा. कोठारी और सेनापती बापट इन वरिष्ठ नेताओं को संयुक्त महाराष्ट्र का पंचायतन कहा जाता है। ये किसी भी राजनीतिक दल में नहीं थे। उन्होंने निर्दलीय होकर संपूर्ण आंदोलन का नेतृत्व किया। यह आंदोलन जब लडा जा रहा था। तब प्रबोधनकार 70 साल के थे। उस समय भी अपने व्याख्यान के माध्यम से उन्होंने लोगों में नई चेतना जगाई। उनकी लेखनी तो निडरता से चल ही रही थी। उस समय बाबासाहेब आंबेडकर का लिया गया इंटरव्यू काफी महत्वपूर्ण था। मतभेद भूलकर एक नहीं हुए तो कांग्रेस, मुंबई सहित महाराष्ट्र कभी नहीं देगी। बाबासाहेब की दी गई यह चेतावनी  काफी सटीक लगी तथी। उसके बाद सभी विरोधी दल संयुक्त महाराष्ट्र समिति में शामिल हुए और इस तरह महाराष्ट्र का निर्माण हुआ। उसके बाद प्रबोधनकार ने सभी सार्वजनिक आंदोलनों से इस्तीफा दे दिया।

 ...और शिवसेना-

 एक सार्वजनिक नवरात्रोत्सव के समय शिकार के लिए घात लगाए  बैठे शेर का विशाल चित्र प्रबोधनकार ने निकाला था। उस चित्र को छोटे बाल और श्रीकांत देख रहे थे। आगे जाकर वही शेर शिवसेना का प्रतीक चिह्न बन गया। सिर्फ यह प्रतीक चिह्न ही नहीं बल्कि शिवसेना यह नाम , जय महाराष्ट्र का घोष वाक्य , ज्वलंत मराठी अभियान की पताका और बहुजनी हिंदुत्ववाद आदि सब कुछ मूलत: प्रबोधनकार का दिया हुआ है। बालासाहेब ने प्रबोधनकार की वाणी , लेखनी और कूची का कौशल्य लिया तो श्रीकांत ने उनके साथ संगीत ले लिया। ' न्यूज डे ' छोडने के बाद कार्टूनिस्ट के रूप में ख्याति प्राप्त करनेवाले बालासाहेब 'शंकर्स वीकली ' की तर्ज पर अंग्रेजी साप्ताहिक निकालने की तैयारी में थे। प्रबोधनकार ने कहा नहीं। मराठी व्यंग्यचित्र साप्ताहिक चाहिए , नाम भी बताया 'मार्मिक'। 'मार्मिक' ने 'शिवसेना' खडी की। उस शिवसेना को मराठी के अभिमान का नारा भी प्रबोधनकार ने दिया। 'शिवसेना' के जन्म से करीब 45 वर्ष पूर्व उन्होंने मुंबई में बढती भीड के बारे में 'प्रबोधन' में लेख लिखा था। इतना ही नहीं तो स्थानीय लोगों को नौकरियां मिलनी चाहिए इस तथ्य पर अंग्रेजी सरकार से मंजूरी भी ले ली थी।

20 नवंबर, 1973 को प्रबोधनकार का निधन हुआ। उस समय 'शिवसेना' मुंबई में सत्ता में थी। सुधीर जोशी मुंबई के महापौर थे। उनकी अंतिम यात्रा बाबासाहेब आंबेडकर के बाद मुंबई में निकली सबसे बड अंतिम यात्रा थी। घर की चौखट के बाहर चप्पलों का ढेर ही अपनी संपत्ति है , ऐसा अपने बच्चों से कहनेवाले प्रबोधनकार 90 साल की एक सुखद जिंदगी जीते हुए पूर्ण संतुष्टि के साथ थम गए।